Sunday, March 22, 2015

नारी सम्मान बिना, पुरुष मान बिना।

सामाजिक सोच को झकझोरती नई शुरुआत।"अली मोरे अँगना '' 
विवेक हीन समाज में चेतना के अभाव में व्यक्ति पशु समान है, ऐसे में जब सही और गलत का भेद मिट जाना स्वभाविक है, तब केवल आरोप प्रत्यारोप का दौर आरम्भ हो जाता है ,ऐसे  में ना सृजन होते ना कोई आंदोलन। 
                                       इस कटु सत्य से  कुछ लोगो को तकलीफ़ ज़रूर होंगी ,कि अब हम किसी बदलाव की किसी से उम्मीद ना करें।  दूसरे कि प्रगति देख ईष्या करना ही नियति मात्र जब रह जाता है जब मित्रवत व्यवहार असंभव लगने लगे तब अपने  स्वार्थ के लिए औरो के सपनों का ही  हरण होने लगे तब हम कौन से नव निर्मार्ण कि बात कर रहे है । ये ब्लॉग इन्हीं सब मुद्दों को फिर से उठा रहा 

पहल कर रही  हूँ नारी के बदलाव में अड़चन क्यों है।   ब्लॉग ;"नारी तुम केवल श्रद्धा हो। 
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 एक काव्यात्मक लेख।
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नारी तू घर आँगन कि बहार है ,
या सावन कि ठंडी सी  फुहार है।
 बहती हवा कि वही ब्यार है
 , प्रेम -समर्पण कि पुकार है ,
विश्वास है,जीवन पर  फिर भी
इस समाज से बाहर है।                    
पुरुष कि संगनी मात्र बने रहकर
 हर स्वप्न करती साकार है।

कितनी लड़कियां है जो अपने को सार्थक कर पाई। अपने गुणों को विकसित कर पाई या नारी स्वाभिमान का
कारण बन पाई। जिस देश में सदा नारी देवी बना कर पूजी गई, वहाँ आज नारी खुद  अपने  को खो रही  है। जब ह्रदय में ज़ड़ता आ जाती है ,तब  व्यक्ति स्वयं पतन कि ओर चला जाता है ,ऐसे में ज्ञान - अज़ान  शेष नहीं रह जाता। तब समांज अपने आगे बढ़ने के रास्ते स्वयं बंद कर लेता है , वहां नारी के सम्मान और  पुरुष  के पतन  का प्रादुर्भाव हो जाता है। जब नारी ही श्रद्धाहीन  हो ,तब नारी जगत में कौन सा प्रभाव बना अपने को स्थापित कर पायेगी !

बचपन में जो बाल -सुलभ व्यवहार ना कर सके, जिसमें अपने  मित्र को क्षमा करने का साहस  ना हो ऐसे में  स्त्री क्या परम मित्र बन सकती है , ममता  होने के अधिकार से कोई माँ नहीं होती  रविन्द्रनाथ टैगोर के अनुसार  जननी जन्म देने वाली होती है पर संस्कार देने वाली माँ कहलाती है,जो  स्वयं संस्कार विहीन हो क्या वो माँ के शाश्वत रूप में  स्त्री में होती  है, अगर स्त्री में ममत्व ही ना रह जाए तो वो क्या सूखी हुई नदी के समान नहीं होगी ऐसे में  स्त्री क्या नारी कहलाने योग्य है ,फिर  ये कहना अतिश्यक्ति होगी कि नारी तुम केवल
श्रद्धा हो।  आज हम सरल मृदु भावों पर जब अंकुश लगाने लगेंगे,  भावनाओं पर अत्यधिक नियंत्रण केवल विद्रोह को जन्म देते है  ऐसे में  प्रेम कि बात भी अश्लीलता लगने लगती है। जहाँ भावनाओं का जन्म ही नहीं होगा , वो समाज केवल विद्रोह को जन्म दे सकता है , आंदोलन  को नहीं।  कोमलता के अभाव में कुछ इस
तरह कहा जा सकता है।

चाँद भी अब नज़र आता नहीं
तारे भी आसमा पर धुंधले हुए।

रात कि काली घनी चादरों में
दुःख के ये बादल छटते  नहीं ।

अजनबी आज तक ऐसे  न थे
खामोशियो में यू भी कटने लगे
 

आज नारी सार्थक ज़रूर हो गई है ,पर कैसी सार्थकता है ये जहाँ हमारी शिक्षा केवल धनोपार्जन तक सीमित  है।
 इस स्वार्थ युग में नारी केवल तभी तक पूजी जाती है जब तक धन उससे पोषित किया जा सके।  ऐसे में दहेज़
प्रथा  विकृत  रूप में सामने आया।जब पुरुष कि सोच ही पशु समान हो गई।
आज स्त्री अपना गौरव स्वयं खो कर क्या पशू के समान आचरण नहीं कर रही,ऐसा आचरण जिस में प्रेम नहीं दया नहीं सोहादर्य  नहीं फिर ऐसी नारी  किन अधिकारों कि गुहार लगाती है,  जब व्यवहार ही सरल ना हो कर जटिल और असमाजिक  हो गए हो तब ऐसी स्थिति में क्या होता है,समाज में केवल अंधकार रह जाता है , नारी  के सम्मान को पुरुष नहीं बचा पता, जब पुरुष के मान  को स्त्री  हर लेती है ।  अचानक लगने लगे कि 
केवल गुण से अधिक रूप उत्तम है और धन ही सबकुछ है और योग्यता केवल  धन से ही सिद्ध होती है तब व्यक्ति व्यभिचार कि और बढ़ जाता है , जब योग्य व्यक्ति अपने गुण और शक्ति के आधार पर कुछ ना अर्जित कर पाये। विद्वान व्यक्ति का आंकलन भी उस पर दोषारोपण कर के हो। ऐसे में नवीन संरचना का जन्म  नहीं  हो सकता।
जब समाज  में संतुलन ही ना  हो फिर हम सामाजिक स्थिरता कि बात क्यू करें,ऐसे अस्थिर समाज में कोई
कैसे नव निर्माण कि बात कर सकता है। जब नव निर्माण नहीं तो नारी भी सम्मानित नहीं हो सकती , चाहे वो
किसी भी समाज में हो ।

यह कारण इसके मूल में छिपा है,कि आज के इस तकनीकी युग में हमारे लिए इन सब बातो का कोई अर्थ नही
अब नज़रिया केवल सोचने का है, और जब यही नज़रिया विकसित ही ना हो पाये तब बदलाव कि बात कैसे उठेगी। नारी परिवर्तन तभी हो सकता है जब पुरुष भी साथ दे। आज स्त्री विशेषाधिकार कि वज़ह से नारी का शोषण हो रहा है, क्योंकि पुरुष अपने अधिकारों को कम क्षमतावान पाते है।

शिक्षित महिलाओं कि दर पुरुषों से कम है तभी समांज में आवश्यकता पड़ती है नारी संबधित नियम बनाने कि पर  विडंबना है कि जिन लोगो को अधिकारों कि आवशकता होती है वो ही इसका प्रयोग नहीं कर पाते।
ज़िन्दगी कि दोहरी मार झेलते हुए वो आज विद्रोह कि भावनाओं में ही जन्म ले कर पली है।  ऐसे में हृदय में
कौन सी भावनाए पनपेगी। अपने सम्मान को पाने के लिए संघर्ष करती नारी क्या श्रध्ये  हो पायेगी।

  माँ बन कर  बच्चों को मीठी लोरी सुनाती है, बहन   वही वृद्धावस्था में अपने बच्चो दवारा  प्रताड़ित हो किसी कोने में रोती है तब कौन सी बहू है जो बेटी बन कर साथ दे जाती है , त्रासदी यह है कि नारी आज नारी के ही विरुद्ध हो कर खड़ी है । अपनी पहचान बनाने के लिए अपनों पर  दांव पर लगा रही है। क्या ऐसी नारिया श्रद्धा का विषय हो सकती है, ये  सोचने कि बात है।

नारी जब जीवन दे तो कल्याणी नहीं तो जीवन हर लेने वाली काली ही नज़र आएगी  गुण के अभाव में सद्गुणों  भी दुर्गुण बन जाते है। जीवन का उद्देश्ये ही ना हो तो जीवन का क्या।

आदिकाल से अब तक क्या बदल गया स्त्री के लिए , वेदों को लिखने वाले 14 ऋषियों में एक स्त्री भी थी।
नारी तब भी सबल थी और आज भी सबल है। तब मान्यताओं से परम्पराओं और रूढ़ियों में फ़सी थी,आज  केवल धनोपार्जन का  साधन मात्र रह गई है। उसके ह्रदय कि व्यथा उसके अंदर ही रह जाती है ,यही दबी  हूई संवेदनाय  जल प्रवाह बन फूट पड़ती है तो नदी बन खेतो में खुशहाली लाती है और कहीं दावानल बन फूट पड़ती है ,कहना ना  होगा  -
घूमते फिरते सन्नाटे में   एक आवाज़ हूँ मैं
जल प्रवाह कहीं जो  फूटे वो अंतसलिला हूँ मैं

जन्म से ही धित्कारी गई जो और कभी जन्म लेते हुये ही मार दी गई ,जिसके होने पर त्यौहार  सा उत्सव कंही
फीका लगने लगा आज भी नारी पुरुष समाज का खिलौना ही है।

प्रश्न उठता है क्यों सबल हो कर भी कुछ नहीं कर पाई और क्यों  पुरुष के ऊपर लांछन ही लगाती रही।
नारी, नारी के रूप में अपने आप को पहचान ही नहीं पाई, माँ रही तो बेटी के   मनोभावो में समझने में भूल
करती रही और सास बनी तो बहू को जान ही ना पाई। मित्र बनी तो मित्र को ना जान पाई। अजीब विडंबनाओं के साथ नारी जीती रही है। सच कहू तो आज औरत अकेली ही जी रही है।

योग्यताओं के शिखर पर जा कर भी, दहेज़ बलि वेदी पर जली तो कभी , परित्यक्ता बनी ,कभी किसी के घर को
उजाड़ने का कारण बनी,कारण अगर ढूढ़ने जाये तो अपने आप पता लग जायेगा कि स्त्री ने कभी पुरुष और पुरुष ने स्त्री पर जहाँ विश्वास नहीं किया वहाँ नारी ना श्रद्धा बनी ना पुरुष को मान ही मिला। अगले ब्लॉग में
विचार होगा कि अगर स्त्री धन को संचित करने का जरिया मात्र है या पुरुष कि रह का कंटक।
आज नारी को आगे बढ़ कर अपना खोया सम्मान कैसे आर्जित करना है,और पुरुष को मान कैसे दिलाना है।
जब तक नारी जान नहीं पाती ,तब तक के लिए संतोष के साथ विश्वास रख कर उसे आगे बढ़ना होगा।

अचल विश्वास का दामन क्यों नहीं थामती
दरिया को अभी तुम और क्यों नहीं थामती

आस का दीपक जला राह क्यों नहीं थामती
निरीह जनों का ये जीवन क्यों नहीं थामती

जल रहित जीवन से प्यास क्यों है मांगती
पाषाण हो चुके हृदय से स्नेह क्यों  मांगती

अशांति चहुँ दिस अशांति मची बस अशांति
तूफान जब आ गया है उसे क्यों नहीं थामती।

आराधना राय "अरु "
Rai Aradhana ©





4 comments:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (05-09-2015) को "राधाकृष्णन-कृष्ण का, है अद्भुत संयोग" (चर्चा अंक-2089) पर भी होगी।
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    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    श्रीकृष्ण जन्माष्टमी तथा शिक्षक-दिवस की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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    1. गुरु नमन अस्वस्थ रहने के कारण आप से बात नहीं कर पाई। मेरी त्रुटियों को क्षमा करे।

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  2. गहन मननशील प्रस्तुति हेतु आभार

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