Saturday, October 17, 2015

बिहार किस प्रतीक्षा में?


बिहार   किस प्रतीक्षा में?


अराजकता के जिस दौर में चाण्क्य का जन्म हुआ था ,उसी दौर को आज बिहार जी रहा है , पर आज बिहार में कोई चाणक्य नहीं है जो उसे अराजकता के दौर से निकल कर समृद्धि  की राह दिखाए , लालू जी के राज के दौरान बिहार के लोग देख चुके है की वो कौन सी कैसी प्रताड़ना झेल चुके है।  आज भी जोड़ -तोड़ की राजनीति में नितीश जी कौन से लोभ में लालू जी के साथ मिल कर किस आशा की बात कर रहे है।
हेमा -मालिनी के गालों जैसी सड़क बना कर क्या गरीब का पेट भर रहे है या दहेज़ -प्रथा, को समाप्त कर रहे है , आज भी बिहार में लड़की का पिता भर पेट भोजन नहीं कर पा रहा है। आज भी नक्क्सवाद का बोल -बाला है , नक्क्स्ल  माओवाद आने का अर्थ ही है , समाज बदलाव चाहता है , क्योकि आज बिहार का किसान भूखा और राज नेताओ के घर भरे हुए है , समाज दो धारी तलवार पर चल रहा है , बेहतर है उलटे - सीधे  मुद्दो पर काम करने की बजाए , एक मत हो कर सोचे।
सीधी- बात है भ्रष्टाचार का अंत ही नहीं हो रहा है, एक दूसरे पर इल्ज़ाम लगा कर हर कोई आगे बढ़ जाना चाहता है। जब गरीब के पेट की ना सोच कर अपने स्वार्थ की बात करते है ,तब आतंकवाद, नक्क्स्लवाद जैसी सामाजिक बीमारी अपने आप दीमक की तरह देश की हड्डियों को गला देती है.। राहुल भावी प्रधान मंत्री बनना चाहते है , l
सारे विश्व को राजनीति का ज्ञान देने वाले चाणक्य की जन्म भूमि आज रो रही है।  क्या आज राहुल गांधी ,चाणक्य बनने जा रहे है , आज के महायुद्ध के  रण में जौहर दिखने वाले लोग ही कुछ कर सकते है, राम विलास पासवान , लालू जी जो स्वयं भ्रष्टाचार के प्रतीक है क्या , बिहार के बदहाल होते लोगो के बारे में कुछ सोचेगे, जो स्वयं नहीं जानते क्या करना है , क्या कर पायेगे जीवन में , सामजिक ज़िम्मेदारियों से भाग रहे है नितीश जी , पता नहीं कौन सा गठबंधन किया जा रहा है बिहार के एक तरफा विकास के लिए।
राहुल गांधी , जो अपने देश से ही अवगत नहीं , जिन्हे देश नहीं देश की राज गद्दी से प्रेम है, वो क्या करेंगे , जो यह नहीं पहचान पा रहे की बिहार में किसान और लेखक दोनों भूख , बदहाली , में
जीवन बिता रहे है। जिन में बौद्धिक स्तर शून्य हो वह दूसरों का बौद्धिक स्तर क्या बतायेगे, केवल राजनैतिक सुखो के लिए राहुल गांधी जी , राम विलास पासवान जी , लालू जी , नितीश जी , देश के हित को न देख कर कौन सा हित साध रहे है।
कामयाबी के लिए जो चल पड़े
जिन के चेहरों में सदा ही बल पड़े
भूख , न देख कर  स्वार्थ पर अड़े
रस्ते की धुप जो ना सह कर खड़े
कौन सा नव -दीप जलना चाहते है
कामयाबी के शिखर पे जाना चाहते है

राजनीति के लिए समाज केवल एक प्रयोगशाला है।बिहार आज समाज के हाशिये पर खड़ा है, कही बिहार भी आतंक वाद के चपेट में न आ जाये

आराधना राय "अरु"



 
 
 


 

Sunday, September 13, 2015

कदम मिला कर चलना होगा

                 
         
                                    कदम मिला कर चलना होगा
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                                 लाखों प्रकाश पुंज मुस्कुरा जा रहे जब
                                 अन्धकार मिटा चले  हँसे गाए यही सब

                                चन्द्र शोभित रहे नहीं लगते हो ग्रहण तब
                                 स्वयं अरुणिमा होती हो प्रतीक्षा- रत जब

यह चार पक्तियां केवल गा कर सुनाने के लिए नहीं है ,ह्रदय में सारगंभित करने के लिए है। हम २१वी सदी में रहते है , जहाँ हाथ धूमा कर सब कुछ सुलभ हो जाता है। इस सुलभता ने हमारे जीवन मूल्यों को अपरिहार्य बना दिया है , आज ऐसा लगता है हम नैतिकता के चरम पर नहीं पतन पर पहुँच गए है। आज राष्ट्र निर्माण की बातें हो तो रही है, पर कितनी सार्थकता से हो पाया  है, देश  का नव -निर्माण ?

                                                    गरीबी ज्यो की त्यों है ? कुप्रथाएँ, सामाजिक रूढ़िवादी परम्पराएँ, द्वेष और आज भी हम लोग  अपने आप को खानों में बाँट कर जी रहे है। अपने आप से चल रहा हमारा जीवन संधर्ष  उतना ही प्राचीन है जितने की हम जितना प्राचीन है , हड़प्पा और मोहनजोदाड़ो संस्कृति .उनमें भी  भाषा , ज्ञान , कर्म , और भूमि को लेकर कभी सधर्ष नहीं हुआ यही कारण है ,४,५०० साल पुरानी संस्कृति आज भी एक उन्नत सभ्यता मानी जाती है।

                                               कहते है जब आधा संसार बर्बरता पूर्ण जंगली जीवन जी रहा था तब भारत वर्ष में ज्ञान और विज्ञान का उदय हो गया था।आज अपने देश के हालत कुछ यूँ बयां होते देख रही हूँ--

                                           अभी काफिलों को लुटेरों का डर है
                                           अभी मेरा  दर तो  खतरों का घर  है।

1947 से लेकर आज तक भारत को अपनी एकता ,सांस्कृतिक विरासत पर गर्व था ,होना भी चाहिए, नव -निर्माण के लिए जीवन की प्रेरणात्मक, अमूल्य, धरोहर का बलिदान नहीं किया जा सकता।

 पहले का भारत                हम कभी एक नहीं थे न होने का हमने प्रयास ही किया , केवल स्वामित्व की भावना से ही एक दूसरे पर प्रहार करते रहे। हिन्दू - यवनों से लड़ते रहे और यवन हिन्दुओं से , इसी कारण हम अंगेज़ी सत्ता के गुलाम हो गये।

इस प्रायद्वीप पे कभी एक जन- जाति के लोग रहे ही नहीं थे ,मोहनजोदाड़ो बसा ही ऐसी जाती प्रजाति से जो घुमन्तु- नोडिक जाती समूह से थे इनमे सम्भवतः अफ्रीका, आस्ट्रेलिया , और इंडो - यूरोपियन समूह के साथ साथ द्रविड़ प्रजाति एक साथ  रहते थे , बिना किसी आपसी प्रतिरोध के ,ये चकित करने वाला तथ्य है।

 भारत तो वो सतरंगी दीपों की पंक्ति है,  जिस में हर दीप अलग आभा लिए है।बात आश्चर्य चकित करने वाली है,की हिंदी में सभी उत्तर पूरब और पश्चिम की क्षेत्रीय भाषाओं का समावेश होने के साथ -साथ संस्कृत जैसी क्लिष्ट भाषा का भी समावेश है ,जिस की शुरुआत भारतेंदु युग से हुई।  ऐसा समझा जाता है की घनानंद, देव , बिहारी , विद्यापति , मीरा , कबीर , रहीम , तुलसी , वृंद, नानक , जैसे कवियों और संतो की वाणी ने एक ऐसी भाषा को जन्म दिया जो आगे चल कर हिंदी कहलाई।
 आधुनिक हिंदी भाषा का जन्म ही भारतेंदु युग से समझा जाता है, इसी हिंदी का विकास भारतेंदु हरिश्चंद  जी ने किया।

                                निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल ।
                                बिन निज भाषा-ज्ञान के, मिटत न हिय को सूल ।।

                                   विविध कला शिक्षा अमित, ज्ञान अनेक प्रकार।
                                         सब देसन से लै करहू, भाषा माहि प्रचार ।



अपनी भाषा अपना देश और अपनी बातें कहती अपनी भाषा की  ज्ञान की पुस्तक।  २०० साल अंगेज़ राज कर के चले गए और उस संधर्ष के दौर में हिंदी ही स्वदेशी आंदोलन का माध्यम बनी, इस बीच क्षेत्रीय भाषाओं का भी विकास होता रहा।

देश प्रेम - सोचती हूँ की अगर आज हम गुलाम हो जाये तो  क्या हम में इतना साहस होगा की हम देश की बात स्वयं से पहले रख पाये। विवेका नन्द जी ने खोया हुआ सम्मान दिलाने के लिए सामाजिक जागरण का कार्य किया।  जब नैतिकता का ही पतन हो जाये तब सामजिक मूल्यों की बात कैसे होगी , स्वाभिमान ही गिरवी हो तो हृदय भी सबल और मज़बूत नहीं होगा।  ,अपनी आवश्यकताओं से अधिक व्यय करने के लिए।




आज का भारत  
आज हमारा सामजिक स्तर बढ़ गया है , इतना की घर से देर रात को बाहर जाने पर या निकल कर लगता है कोई गलती हो गई हो।  आज माँ मॉम है और पिता पॉप या शायद आल टाइम मनी का दूसरा पर्याय  हर कोई बाध्य  है, अपनी आवश्यकताओं से अधिक व्यय करने के लिए।

जब बचपन में ही सिखाया जायेगा की अपना काम किस तरह निकले , कैसे झूठ बोले या आगे बढ़ने के लिए कौन से नए  पैतरे   अपनाये। ऐसे में हम कौन सा समाज दे रहे है, ये सोचने की बात है की हम क्या दे रहे है?  

रोज़ जब आने वाली पौध आरक्षण पे दंगा देखेगी तब क्या हमारे नौनिहाल  पौरुष का पाठ सीखेंगे ? जब खैरात में मिल रह हो तब मेहनत कर कौन खाना चाहेगा ?


चाणक्य ने कहा था - एक दिन अपने स्वार्थो को जीते हुए हम पहले खंडो में , फिर प्रांतो में , और एक दिन ऐसा आएगा जब व्यक्ति केवल स्वयं की अवहेलना कर अपने आप से भी अलग हो निराशा में जीएगा।

पता नहीं कितने स्वार्थो को साधने के लिए हम कब तक यूँ ही अपने आप से लड़ते रहेंगे।
कौन सा दिन ऐसा आएगा जब हम , तमिल , तेलगू , मराठी , पंजाबी न हो कर भारतीय होगे। आज पदक तो देश के नाम से विदेशो मैं मिलते है पर न जाने क्यों देश की मिटटी तक वो किसी खास प्रान्त  की पहचान ही बन कर जीते है।
सीधे मुद्दे की बात करूँ तो हम अब भी एक नहीं है। हिंदी को आज  हिंदी भाषीय प्रदेश में भी बोला नहीं जाता , हिंदी मतलब अनपढ़ गँवार, अंगेज़ी सुसंस्कृत भाषा हो गई है।
                                            पराधीन हो सुख सपने नाही

हिंदी लोग बोलने में शरमाते है ,संस्कृत कब की लोग भुला चुके ,पुस्तकों में रखा वृहत ज्ञान कब का समय के चूहे  चाट कर गए ,१० वर्ष के बाद, हम अपने आप को अपने अंतस को और हीन ही पायेगे क्युकी हमरी क्षेत्रीय भाषा भी मेर चुकी होंगी , और हिंदी लोग भूल गए होंगे , फिर ज्ञान और सभ्यता के लिए हम विदेश का मुख ही  ताकेगे।

                                     
मेरा मानना है की भारत को पुनः जोड़ने के लिए  अंगेज़ी भाषा माध्यम नहीं बन सकती। हिंदी को ही अपना गर्व , अहंकार त्याग कर अपनी जैसी दूसरी भाषाओं के साथ मिल कर आगे बढ़ना होगा। 

एक दूसरे को सम्मान दिए बिना हम जुड़ नहीं सकेंगे। बैर के स्थान पर क्षमा और जड़ता के स्थान पर गतिशीलता से काम लेना होगा। उम्मीद है जो रेखाएं हम खीच चुके है उन से बाहर आयेगे।

पहले भारतीय बन कर देखे फिर एक दिन वो सपनो का भारत भी होगा जिस की हमें आस है, पर कदम मिला कर सभी को एक साथ वैसे ही चलना होगा जैसे १०० साल पहले चले थे।


अगर फिर भी ये इतन मुश्किल है तो केवल इतना करने की कोशिश करे------------


                            रोज़ - रोज़ की मशकत अब कौन करे
                             आओ एक साथ ही रहे या अब मौन रहे

                                टूटने , बिखरने से अच्छा है , बात करे
                               अहंकार की अग्नि बुझा कर ना मौन रहे

                                       परम से पहले अब देश -प्रेम की बात करे
                                         टुकड़ों में बंटकर जीने से  बेहतर मौन रहे

                                                  हिंदी -उर्दू , तमिल, तेलगु, मराठी, गुज़रती
                                                     देख कर न सोच  इन से बात भी कौन करे

                                                       बैठ नीम की छाँव में हिल -मिल ही बात करे
                                                       तेरे मेरे की बात हृदय में  ना रख कर मौन रहे।        



                                                                                                                    आराधना राय "अरु "


यह लेख मौलिक  और अप्रकाशित है , इस लेख में प्रकाशित विचार लेखक के अपने है।




















                                 

                     

       








Friday, August 28, 2015

आजकल कम मिलती है ऐसी पत्रिकायें

आजकल कम मिलती है ऐसी पत्रिकायें
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पत्रिका का अंक हाथ में था , मुझ से पहले इसे मेरी माँ ने पढा, वो पढ़ती रही और मैं उन का मुँह देखती रही। माँ की आँखों में से अाँसू निकल रहे थे, वो पंकज त्रिवेदी जी का लेख पढ़ कर रो रही थी , फिर असीमा जी की लिखी कविताये पढ़ कर भी रोई , फिर पन्नें पलटी हुई बोली पूरी पत्रिका ही पढ़ने योग्य है , आज कल ऐसी पत्रिकायें मिलती कहाँ है। माँ की बात सुन सुप्रसिद्ध कथाकार शिवानी जी की बात याद आ गई, यदि पाठक किसी कविता और कहानी को पढ़ कर रोये तो समझ लेना चाहिए, लेखक की लेखनी सफल हो गई। विश्व- गाथा की विषय वस्तु पठनीय नहीं सरहनीय भी है। 

Tuesday, August 4, 2015

ज़िन्दगी कह गई




मुझ से कहती है ये ज़िंदगी धीरे चलों
वक़्त के मोड़ पर तुम भी ज़रा तो रुको

सच कि बातें ,रुसवाइयों कि कहानियाँ
संग हो चुके दिलों कि कहानियाँ लिखों

मौत और ज़िन्दगी कि ज़ंग ज़ारी अभी
हँस कर  परिंदों कि मांनिंद उड़न ये भरो

रो कर बहुत काटी ये बेचैन सी ज़िन्दगी
"अरु"अब कुछ उम्मीदों कि बारिश करो
आराधना राय



Monday, April 27, 2015



ऐ  ताज तू भी सर उठा
ख्वाब से जाग
दिल को अपना बना
मंजिले आसान
कहा होती है
ज़ुल्म सह , इश्क
 में ढल के
खुशियों में रोज़
रवा होती है
चाहे कैसी भी हो
हर रात जवां होती है
इंसान के हालत
ना हो खुश रहने के
होठो पर मुस्कुराहट
होती है

आराधना राय






















कष्ट सह कर जन्म मनुज लेता है
सदा इंसान ही कर्म में लीन रहता है

पीड़ सह ये धीर का विश्वास बनता है
मन में जगा ज़वाला हो अग्रसर सदा

मन में हो रोष ना समय कभी गवा यही
प्रदीप्त हो मार्ग प्रशस्त हो अग्रसर सदा

दीप जल रहे हो आशा के मुस्कुरा दे सदा
मन से मन के तार जुड़ रहे यहाँ ही सदा

कर्म से जुड़े रहे जो कर्म रत हो यही सदा
यही विश्वास ले कर चल तू भी यहाँ सदा

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Saturday, March 28, 2015

ग़मों के दौर



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ग़मों के दौर से गुज़रें है
 तेरा दर है  इन दीवारों से

 बन के आएगी सदा मेरी
इन ऊची-नीची मीनारों से

शामो सहर जब न रहे होगे
कहीं  तो नूर -ए खुदा रहे होगे

हम यू ही संग क्यों हुए  जाते है
अपने में कहीं दफ़न हुए जाते है

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Friday, March 27, 2015

नीड़ का निर्माण फिर फिर।






१९४७  एक  दौर कि शुरुआत थीऔर एक दौर का अंत जब देश ईष्या , नफ़रत कि वजह से दो टुकड़े हो गया था।
एक कि बर्बादी दूसरे का सुख लगने लगे, यही वक़्त  होता है जब  हौसलों का और उम्मीदो का भी दामन थमा जाता  है । देश तो दोनों एक ही थे , जब अलग हुए , उनके मसले भी एक ही थे ,उनकी बातें भी एक सी थी , पर दिलों  में खाइया आज भी है ,वक़्त ने नासूर दोनों तरफ नहीं भरे,कारण सिर्फ इतना है कि आज तक दोनों मुल्कों नेएक दूसरे कि बात समझी ही नहीं ,समझौते कितने भी हो जाये, उन समझौतों पर चलने के लिए ज़रूरी है ,विश्वास का होना ,ऐसे में विश्वास दोनों तरफ ख़तम हो जाए, कोई संधि नहीं हो सकती।
                                   
                                     '' सफर था दश्त का मगर
                                       चले तो ख्वाब ले के चले ''

हम आज़ादी का परचम लहराते रहे और देश टुकड़ों में बाँटता चला गया ,प्यार ज़रा- ज़रा सी बातों में नफ़रत
बनता गया। १९४७ के हालत और १९८० के दशक के हालत अलग नहीं थे। बहुत आसान होता है दुर्भावना के
साथ किसी समाज को नीचा दिखना , बैर पाल कर किसी के साथ धोखा कर जाना आसान है।   महल जब खंडहर हो जाते  है, तब एक उज़ड़ा म्यार रह जाते है। शर्तो पर ज़िंदगी चलती है ना दोस्ती ना प्यार जो शर्तों
पर चले वो व्यापार कहलाता है।आज पाकिस्तान एक अलग मुल्क है , उसे आज हम अलग देश कि तरह से देखे तो ही अच्छा है।
                           
                             '' हिन्दू मुसलमान , ईसाई , सिख से लहलहाता है हिंदुस्तान,
                                मज़हबी आलम से ऊपर भी कोई तेरा जहां अब कहीं होगा।''

दंगाई दंगा कर नफ़रत ही फैलायेंगे , प्रेम कि भाषा केवल उन्हें सिखाई नहीं जा सकती ,विवेकानंद के अनुसार
दुश्मन को हमेशा ऊँचा दर्ज़ा देना चाहिए इसलिए १९४७ हो या ८० के दशक में होने वाले गदर आज तक भुलाए
नहीं जा सके।

जंग लगी बेड़ियों का फिर ये हार
क्यों
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क्षुब्ध संचित जीवन पर अब ये  प्रहार
क्यों
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भ्रमित हो चुके गान सारे नव प्रयाण
क्यों
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भोर कि इस लालिमा पर अश्रु धार
क्यों
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 रंग विहीन जीवन पर अब ये श्रृंगार
क्यों
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नीड़ का तेरे मेरे अब  फिर निर्माण
क्यों
हिंदुस्तान पहले भी टुकडों में बंटा हुआ था , चाणक्ये ने जब सिकंदर के हमलों से पहले पूरे भू -भाग को एक
करने कि ठानी थी। तब हम जनपदों में बंटे हुए थे, और उस हार का कारण था , पूरे भू -भाग  का अलग -थलग
हो कर रहना था।  वीर वही जो हार कर भी हार ना मानने   वालों से ना रुके। चाण्क्य सामान गुरु ही चन्द्र गुप्त मौर्य जैसे शिष्यों को जन्म दे पाते है और वही आधारशिला रखते है नालंदा जैसे विश्व विधालयों  की।

                                    "पीड़ से जन्म हुआ होगा
                                      तब  ही सृजन हुआ होगा ''

नव युग तब ही आता है जब हौसलों के गीत गाये जा सकते है , वक़्त बदला समय के साथ हिंदुस्तान बढ़ा और
नए धर्मों ने हिंदुस्तान सजान शुरू किया  जैसे थके हारे प्राणियों को घने वृक्ष कि छाया मिल गई।

                                        ''ज़मी है और आसमा है
                                         नए कायदो का जहां है। ''

200 साल से ज़्यादा हम लड़े अपनी स्वधीनता के लिए आत्म सम्मान के लिए पर हमने बदले में पाया बंटा हुआ हिंदुस्तान ,१९४७ के दंगो पीड़ तभी समझ आएगी जब १०८० के विद्रोह को भी सम्मान मिलेगा।
आज के परिपेक्ष में समझना ज़रूरी है कि कोई भी गीत किसी के दर्द को समझे बगैर पूरा नहीं होता ना कभी होगा। ये देश उज़ड़ा और बना यू ही सौ बार , पर इस बनने बिगड़ने में अगर अपनी इज़्ज़त और आबरु सम्हाल
ना पाई और अपने दुख में कैद रही वो औरत ही थी। ये बात और थी कि उसे समझ कोई ना पाया।

दुख से कातर तो हुई थी मगर निर्बल नहीं थी, माता सुंदरी , जीजा बाई , रानी लक्ष्मी बाई ,  से लेकर एनी बेसेंट
कित्तूर कि रानी चेनम्मा , चाँद बीबी , जैसी स्त्रियों ने ये जहान बदला।
अपवादों के बाद भी विडम्बना यही है कि चीर -हरण केवल औरतों का होता रहा और मान पुरुषों का गया।

                           महके किसी दामन में गुलों -बू - कि तरह
                           आगाज़ यही है  चमन के बसे  रहने का।

"गम -ए -दिल, तू भी यही है, मेरा मरकस भी यही है , इसी तरह हर बार बिगड़ कर तकदीर ये बनती है,
अगली बार ब्लॉक में स्त्री -पुरुष के सापेक्ष  कुछ और कड़िया। 


































@कॉपी राइट आराधना

1994 मेँ हिंदी अकादमी द्वारा पुरस्कृत , मेरी सहेली नामक मैगज़ीन  मे कहानियाँ लिखी  नाटक   और कुछ रेडिओ प्रोग्रम्मेस  की स्क्रिप्ट लिखने के एक़ अन्तराल बाद दुबारा से हिंदी लेखन करने का दुःसाहस  कर रही हू ।
I write my English short story blog in http://aradhanakissekahniyan.blogspot.in/and I write
Hindi story as tulika and urdu nazm in devanagari script as ana




Sunday, March 22, 2015

नारी सम्मान बिना, पुरुष मान बिना।

सामाजिक सोच को झकझोरती नई शुरुआत।"अली मोरे अँगना '' 
विवेक हीन समाज में चेतना के अभाव में व्यक्ति पशु समान है, ऐसे में जब सही और गलत का भेद मिट जाना स्वभाविक है, तब केवल आरोप प्रत्यारोप का दौर आरम्भ हो जाता है ,ऐसे  में ना सृजन होते ना कोई आंदोलन। 
                                       इस कटु सत्य से  कुछ लोगो को तकलीफ़ ज़रूर होंगी ,कि अब हम किसी बदलाव की किसी से उम्मीद ना करें।  दूसरे कि प्रगति देख ईष्या करना ही नियति मात्र जब रह जाता है जब मित्रवत व्यवहार असंभव लगने लगे तब अपने  स्वार्थ के लिए औरो के सपनों का ही  हरण होने लगे तब हम कौन से नव निर्मार्ण कि बात कर रहे है । ये ब्लॉग इन्हीं सब मुद्दों को फिर से उठा रहा 

पहल कर रही  हूँ नारी के बदलाव में अड़चन क्यों है।   ब्लॉग ;"नारी तुम केवल श्रद्धा हो। 
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 एक काव्यात्मक लेख।
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नारी तू घर आँगन कि बहार है ,
या सावन कि ठंडी सी  फुहार है।
 बहती हवा कि वही ब्यार है
 , प्रेम -समर्पण कि पुकार है ,
विश्वास है,जीवन पर  फिर भी
इस समाज से बाहर है।                    
पुरुष कि संगनी मात्र बने रहकर
 हर स्वप्न करती साकार है।

कितनी लड़कियां है जो अपने को सार्थक कर पाई। अपने गुणों को विकसित कर पाई या नारी स्वाभिमान का
कारण बन पाई। जिस देश में सदा नारी देवी बना कर पूजी गई, वहाँ आज नारी खुद  अपने  को खो रही  है। जब ह्रदय में ज़ड़ता आ जाती है ,तब  व्यक्ति स्वयं पतन कि ओर चला जाता है ,ऐसे में ज्ञान - अज़ान  शेष नहीं रह जाता। तब समांज अपने आगे बढ़ने के रास्ते स्वयं बंद कर लेता है , वहां नारी के सम्मान और  पुरुष  के पतन  का प्रादुर्भाव हो जाता है। जब नारी ही श्रद्धाहीन  हो ,तब नारी जगत में कौन सा प्रभाव बना अपने को स्थापित कर पायेगी !

बचपन में जो बाल -सुलभ व्यवहार ना कर सके, जिसमें अपने  मित्र को क्षमा करने का साहस  ना हो ऐसे में  स्त्री क्या परम मित्र बन सकती है , ममता  होने के अधिकार से कोई माँ नहीं होती  रविन्द्रनाथ टैगोर के अनुसार  जननी जन्म देने वाली होती है पर संस्कार देने वाली माँ कहलाती है,जो  स्वयं संस्कार विहीन हो क्या वो माँ के शाश्वत रूप में  स्त्री में होती  है, अगर स्त्री में ममत्व ही ना रह जाए तो वो क्या सूखी हुई नदी के समान नहीं होगी ऐसे में  स्त्री क्या नारी कहलाने योग्य है ,फिर  ये कहना अतिश्यक्ति होगी कि नारी तुम केवल
श्रद्धा हो।  आज हम सरल मृदु भावों पर जब अंकुश लगाने लगेंगे,  भावनाओं पर अत्यधिक नियंत्रण केवल विद्रोह को जन्म देते है  ऐसे में  प्रेम कि बात भी अश्लीलता लगने लगती है। जहाँ भावनाओं का जन्म ही नहीं होगा , वो समाज केवल विद्रोह को जन्म दे सकता है , आंदोलन  को नहीं।  कोमलता के अभाव में कुछ इस
तरह कहा जा सकता है।

चाँद भी अब नज़र आता नहीं
तारे भी आसमा पर धुंधले हुए।

रात कि काली घनी चादरों में
दुःख के ये बादल छटते  नहीं ।

अजनबी आज तक ऐसे  न थे
खामोशियो में यू भी कटने लगे
 

आज नारी सार्थक ज़रूर हो गई है ,पर कैसी सार्थकता है ये जहाँ हमारी शिक्षा केवल धनोपार्जन तक सीमित  है।
 इस स्वार्थ युग में नारी केवल तभी तक पूजी जाती है जब तक धन उससे पोषित किया जा सके।  ऐसे में दहेज़
प्रथा  विकृत  रूप में सामने आया।जब पुरुष कि सोच ही पशु समान हो गई।
आज स्त्री अपना गौरव स्वयं खो कर क्या पशू के समान आचरण नहीं कर रही,ऐसा आचरण जिस में प्रेम नहीं दया नहीं सोहादर्य  नहीं फिर ऐसी नारी  किन अधिकारों कि गुहार लगाती है,  जब व्यवहार ही सरल ना हो कर जटिल और असमाजिक  हो गए हो तब ऐसी स्थिति में क्या होता है,समाज में केवल अंधकार रह जाता है , नारी  के सम्मान को पुरुष नहीं बचा पता, जब पुरुष के मान  को स्त्री  हर लेती है ।  अचानक लगने लगे कि 
केवल गुण से अधिक रूप उत्तम है और धन ही सबकुछ है और योग्यता केवल  धन से ही सिद्ध होती है तब व्यक्ति व्यभिचार कि और बढ़ जाता है , जब योग्य व्यक्ति अपने गुण और शक्ति के आधार पर कुछ ना अर्जित कर पाये। विद्वान व्यक्ति का आंकलन भी उस पर दोषारोपण कर के हो। ऐसे में नवीन संरचना का जन्म  नहीं  हो सकता।
जब समाज  में संतुलन ही ना  हो फिर हम सामाजिक स्थिरता कि बात क्यू करें,ऐसे अस्थिर समाज में कोई
कैसे नव निर्माण कि बात कर सकता है। जब नव निर्माण नहीं तो नारी भी सम्मानित नहीं हो सकती , चाहे वो
किसी भी समाज में हो ।

यह कारण इसके मूल में छिपा है,कि आज के इस तकनीकी युग में हमारे लिए इन सब बातो का कोई अर्थ नही
अब नज़रिया केवल सोचने का है, और जब यही नज़रिया विकसित ही ना हो पाये तब बदलाव कि बात कैसे उठेगी। नारी परिवर्तन तभी हो सकता है जब पुरुष भी साथ दे। आज स्त्री विशेषाधिकार कि वज़ह से नारी का शोषण हो रहा है, क्योंकि पुरुष अपने अधिकारों को कम क्षमतावान पाते है।

शिक्षित महिलाओं कि दर पुरुषों से कम है तभी समांज में आवश्यकता पड़ती है नारी संबधित नियम बनाने कि पर  विडंबना है कि जिन लोगो को अधिकारों कि आवशकता होती है वो ही इसका प्रयोग नहीं कर पाते।
ज़िन्दगी कि दोहरी मार झेलते हुए वो आज विद्रोह कि भावनाओं में ही जन्म ले कर पली है।  ऐसे में हृदय में
कौन सी भावनाए पनपेगी। अपने सम्मान को पाने के लिए संघर्ष करती नारी क्या श्रध्ये  हो पायेगी।

  माँ बन कर  बच्चों को मीठी लोरी सुनाती है, बहन   वही वृद्धावस्था में अपने बच्चो दवारा  प्रताड़ित हो किसी कोने में रोती है तब कौन सी बहू है जो बेटी बन कर साथ दे जाती है , त्रासदी यह है कि नारी आज नारी के ही विरुद्ध हो कर खड़ी है । अपनी पहचान बनाने के लिए अपनों पर  दांव पर लगा रही है। क्या ऐसी नारिया श्रद्धा का विषय हो सकती है, ये  सोचने कि बात है।

नारी जब जीवन दे तो कल्याणी नहीं तो जीवन हर लेने वाली काली ही नज़र आएगी  गुण के अभाव में सद्गुणों  भी दुर्गुण बन जाते है। जीवन का उद्देश्ये ही ना हो तो जीवन का क्या।

आदिकाल से अब तक क्या बदल गया स्त्री के लिए , वेदों को लिखने वाले 14 ऋषियों में एक स्त्री भी थी।
नारी तब भी सबल थी और आज भी सबल है। तब मान्यताओं से परम्पराओं और रूढ़ियों में फ़सी थी,आज  केवल धनोपार्जन का  साधन मात्र रह गई है। उसके ह्रदय कि व्यथा उसके अंदर ही रह जाती है ,यही दबी  हूई संवेदनाय  जल प्रवाह बन फूट पड़ती है तो नदी बन खेतो में खुशहाली लाती है और कहीं दावानल बन फूट पड़ती है ,कहना ना  होगा  -
घूमते फिरते सन्नाटे में   एक आवाज़ हूँ मैं
जल प्रवाह कहीं जो  फूटे वो अंतसलिला हूँ मैं

जन्म से ही धित्कारी गई जो और कभी जन्म लेते हुये ही मार दी गई ,जिसके होने पर त्यौहार  सा उत्सव कंही
फीका लगने लगा आज भी नारी पुरुष समाज का खिलौना ही है।

प्रश्न उठता है क्यों सबल हो कर भी कुछ नहीं कर पाई और क्यों  पुरुष के ऊपर लांछन ही लगाती रही।
नारी, नारी के रूप में अपने आप को पहचान ही नहीं पाई, माँ रही तो बेटी के   मनोभावो में समझने में भूल
करती रही और सास बनी तो बहू को जान ही ना पाई। मित्र बनी तो मित्र को ना जान पाई। अजीब विडंबनाओं के साथ नारी जीती रही है। सच कहू तो आज औरत अकेली ही जी रही है।

योग्यताओं के शिखर पर जा कर भी, दहेज़ बलि वेदी पर जली तो कभी , परित्यक्ता बनी ,कभी किसी के घर को
उजाड़ने का कारण बनी,कारण अगर ढूढ़ने जाये तो अपने आप पता लग जायेगा कि स्त्री ने कभी पुरुष और पुरुष ने स्त्री पर जहाँ विश्वास नहीं किया वहाँ नारी ना श्रद्धा बनी ना पुरुष को मान ही मिला। अगले ब्लॉग में
विचार होगा कि अगर स्त्री धन को संचित करने का जरिया मात्र है या पुरुष कि रह का कंटक।
आज नारी को आगे बढ़ कर अपना खोया सम्मान कैसे आर्जित करना है,और पुरुष को मान कैसे दिलाना है।
जब तक नारी जान नहीं पाती ,तब तक के लिए संतोष के साथ विश्वास रख कर उसे आगे बढ़ना होगा।

अचल विश्वास का दामन क्यों नहीं थामती
दरिया को अभी तुम और क्यों नहीं थामती

आस का दीपक जला राह क्यों नहीं थामती
निरीह जनों का ये जीवन क्यों नहीं थामती

जल रहित जीवन से प्यास क्यों है मांगती
पाषाण हो चुके हृदय से स्नेह क्यों  मांगती

अशांति चहुँ दिस अशांति मची बस अशांति
तूफान जब आ गया है उसे क्यों नहीं थामती।

आराधना राय "अरु "
Rai Aradhana ©





Thursday, March 19, 2015

सामाजिक सोच को झकझोरती नई शुरुआत।"अली मोरे अँगना ''

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मेरा परिचय
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जन्म 7 दिसंबर 1970 में
संप्रति - दिल्ली विश्व विधालय  से स्नातक  १९९४ *पत्राचार माधयम
साथ -साथ लेखन कि ओर रूझान
D. A V P के  मंचित नाटकों के लिए लेखन १९८९
स्वतंत्र लेखन द्वारा कहानी लेखन करते नुक्कड़ नाटकों में अभिरुचि।
१९९४ में उगती किरणे के अंतर्गत नवोदित लेखिका का पुरस्कार कहानी "भग्न वीणा"के लिए सम्मानित।
ट्रेवल  एंड टूरिज्म मैनेज़मेंट में पोस्ट ग्रेजुएट डिप्लोमा
इतिहास में स्नात्तकोर इंदिरा गांधी खुला विश्वविधालय द्धारा
शिक्षा में स्नातक कुरुक्षेत्र विश्वविधालय।
मैनेज़मेंट इन बिज़नेस एडमिनिस्ट्रेशन सिक्किम मनिपाल विश्वविधालय।
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