आजकल कम मिलती है ऐसी पत्रिकायें
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पत्रिका का अंक हाथ में था , मुझ से पहले इसे मेरी माँ ने पढा, वो पढ़ती रही और मैं उन का मुँह देखती रही। माँ की आँखों में से अाँसू निकल रहे थे, वो पंकज त्रिवेदी जी का लेख पढ़ कर रो रही थी , फिर असीमा जी की लिखी कविताये पढ़ कर भी रोई , फिर पन्नें पलटी हुई बोली पूरी पत्रिका ही पढ़ने योग्य है , आज कल ऐसी पत्रिकायें मिलती कहाँ है। माँ की बात सुन सुप्रसिद्ध कथाकार शिवानी जी की बात याद आ गई, यदि पाठक किसी कविता और कहानी को पढ़ कर रोये तो समझ लेना चाहिए, लेखक की लेखनी सफल हो गई। विश्व- गाथा की विषय वस्तु पठनीय नहीं सरहनीय भी है।
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पत्रिका का अंक हाथ में था , मुझ से पहले इसे मेरी माँ ने पढा, वो पढ़ती रही और मैं उन का मुँह देखती रही। माँ की आँखों में से अाँसू निकल रहे थे, वो पंकज त्रिवेदी जी का लेख पढ़ कर रो रही थी , फिर असीमा जी की लिखी कविताये पढ़ कर भी रोई , फिर पन्नें पलटी हुई बोली पूरी पत्रिका ही पढ़ने योग्य है , आज कल ऐसी पत्रिकायें मिलती कहाँ है। माँ की बात सुन सुप्रसिद्ध कथाकार शिवानी जी की बात याद आ गई, यदि पाठक किसी कविता और कहानी को पढ़ कर रोये तो समझ लेना चाहिए, लेखक की लेखनी सफल हो गई। विश्व- गाथा की विषय वस्तु पठनीय नहीं सरहनीय भी है।
ji ,bilkul sahi hai aaj kal aise marmsparshe rachnaaye kahan padhne ko milte hai
ReplyDeleteधन्यवाद आभार।
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